Thursday, 24 April 2014

''भोलू का भोलापन''

भोलू जैसा की नाम से ही प्रतीत होत है/ बहुत ही भोला-भाला सा नौजवान। जो गाँव की मिठ्ठी में पला बढ़ा और पढ़ा-लिखा साथ ही मेहनतकश इन्सान बना। 
पर अब भोलू के सभी मित्र शहरी हो गये थे/ और जब वो गाँव आते तो भोलू उनके ठाट-बाट से मोहित हो जाता/ जिस से उसका मन गाँव से उचटने लगा। शहर जाके कमाने की इच्छाएँ प्रबल आवेग से उसके मन में विचरने लगी।
जिसके परिणामस्वरूप वो शहर जाने के लिए हठ करने लगा। उसके माँ-बाबा को ये डर था/ कि भोलू तो बहुत भोला है, वो भला शहर में के परिवेश मे कैसे ढ़ल पाऐगा ?
परन्तु ये बात भोलू को कौन समझाए, क्यूंकि जब इच्छाएँ अपना रुप इख़्तियार कर लेती हैँ, तब बुद्धि संकुचित हो जाती है।

भोलू नहा धोके तैयार, सभी को प्रणाम कर विदा हो लिया/ बाबा उसे स्टेशन छोड़ने आए। भोलू तो ख़ुश था, पर बाबा की आँखें ग़मगीन, वो जाते हुए बेटे को बस हाथ हिलाते रह गए।

भोलू शहर पहुँचा। जो दोस्त उसके क़रीबी थे, पाँच से दस दिन में ही अपने असली रूप दिखाने लगे। अथक प्रयास के बाद भोलू को एक दवाई की दूकान में नौकरी मिल गई/ रहने का भी प्रबंध हो गया। एक रात दूकान में छापा पड़ गया, अब भोलू दूकान में ही सोता था इसलिए भोलू को पुलिस ले गई, नक़ली दवाई बेचने और रखने के ज़ुर्म में। दूकान का मालिक साफ़ मुकर गया। और भोलू को कुछ दिन जेल में बितानी पड़ी। 
बरी होकर फ़िर ठोकरें खाई/ बड़ी मुश्किल से फ़िर एक कूरियर कंपनी में जॉब मिली/ लेकिन क़िस्मत यहाँ भी खेल खेल गयी और यहॉँ भी हेरा-फेरी के ज़ुर्म (जिससे वो अनिभिज्ञ था) में सज़ा मिली। भोलू ने हिम्मत नहीं हारी, पर भोलू का भोलापन या बुरी क़िस्मत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसने गाँव अब बातचीत करनी भी बंद कर दी थी। महज़ दो वर्ष में उसने आठ नौकरियाँ पकड़ी और हर जगह बदले में उसे अपने भोलेपन की वजह से यातनाएँ सहनी पड़ी। वह गाँव भी जाए तो किस मुँह से/ उसने गाँव और गाँव के उन मित्रों से नाता तोड़ दिया और अकेले भटकने लगा।

एक दिन भोलू रेलवे ट्रैक के पास बैठा मायूस आती-जाती रेलगाड़ियों को देख रहा था, तभी एक पैंतालीस-पच्चास साल की महिला उसके पास आई/ भोलू को अपनी माँ की याद आ गई और बरबस ही आँखों से अश्रू धारा फूट पड़ी/ महिला ने उसे चुप कराया/ सब हाल से अवगत हुई ओर उसे अपने साथ ले आई।
वो महिला कोई ज्यादा अमीर नहीं थी/ जहाँ रहती थी वो एक स्लम एरिया था। पर महिला पढ़ी-लिखी थी, बस वो भी हालात की मारी हुई थी।
वहाँ का हाल देख भोलू को वहाँ रहने वालों के लिए कुछ करने की अब भावनायें प्रबल होने लगी, और उसने अपने हमउम्रों को इक्क्ठा करने लगा। कुछ दिन में ही वो वहाँ एक कबाड़ की दूकान उन सबकी मदद से चलाने लगा (क्यूंकि ज्यादातर बच्चे वहॉँ यही काम करते थे) साथ ही साथ शाम को वो अपने सभी दोस्तों के साथ बच्चों और वहॉँ के रहवासियों को शिक्षित भी करने लगा। फिर एक दिन उसने माँ (जो उसे आसरा दे रही थी) से कहा की क्यों न एक सँस्था बनाई जाए और उसे पंजीकृत करवाया जाए। महिला को विचार अच्छा लगा। उसने इस काम में अपने मालिक की मदद ली। 

सब की मेहनत रंग लाई। संस्था ने गत वर्षों मे ही पूरी ईमानदारी से काम करते हुए ख़ूब नाम कमाया। भोलू अब अलग अलग एरिया मे दस कबाड़ी दूकान का मलिक और साथ ही उस संस्था क अध्यक्ष बन चूका था। ख्याति देश-विदेश में होने लगी थी।
वहाँ के रहवासियों के सहयोग से भोलू अब वहाँ का निगम पार्षद हो गया था। 

पूरे पाँच वर्षों के बाद भोलू ने गाँव से माँ-बाबा को लाया। दोनों के अश्रू रोके नहीं रुक रहे थे। उन्हें अपने बेटे का भोलापन नहीं अब हालातों की मार खा कर एक तज़ुर्बे कार इन्सान नज़र आ रह था। सभी ख़ुश थे/ माँ-बाबा/सहायता करने वाली माँ/उसके कॉलोनी के लोग---
पर भोलू उदास था, क्यूंकि उसका भोलापन उस से इस ज़माने ने छीन लिया था।
--अभिषेक कुमार ''अभी''

6 comments:

  1. हालातों से ही इंसान सीखता है। . इंसान में हालातों को बदल देने की क्षमता होती हैं बस इरादे उसके मजबूत होने चाहिए
    ...
    अपने गावं से आये किसी चिर-परिचित अपने की सी कहानी लगी
    बहुत सुन्दर

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. सुंदर कहानी
    गावं की
    (कीप इट

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  4. अंत भला तो सब भला... सुंदर कहानी

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